Sunday, October 28, 2007

ज़ो वफ़ा का यक़ीं दीलाते हैं




ज़ो वफ़ा का यक़ीं दीलाते हैं
वादे अक्शर वो भूल जाते हैं

अश्क़ पल्कों तले छुपा कर हम
तेरे केह्ने पे मुस्कुराते हैं

तेरी यादों के साये भी अब तो
दिल के आंगन से लौट जाते हैं

ले उजाले तु भर ले जी भर कर
घर जला कर, येह दिल जलाते हैं

क्या करें कुछ नहीं दवा इस की
अश्क़ पी कर ही ग़म भुलाते हैं

कांटों की अब न किजिये पर्वाः
ज़ख्म तो फूल भी दे जाते हैं

मन्नतोँ पर यक़ीन हैं हम को
बेवफ़ा से येह दील लगाते हैं

बात तुम से हो गर बीछर्ने की
मौत को हम करीब पाते हैं

खुद्फ़रेबी* ही खुद्फ़रेबी हैं
अप्ने जज़्बों से चोट खाते हैं

क्या ज़माना हमे डरायेगा
हम हवादिस* पे घर बनाते हैं


खुद्फ़रेबी=औरों को तो बाद में मगर पेह्ले खुद को दगा देने की आद्मी की फ़ित्रत
हवादीस*=तूफ़ान


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