Sunday, October 28, 2007

ज़ब हमे ज़ख्म दिल के सताने लगे

लिजिये हाजिर  है आप के अनुरोध पर  एक ग़ज़ल बहर २१२/२१२ /२१२ २१२/२१२ पर , उन्वान है पंख और परिंदेो। 

ज़ब हमे ज़ख्म दिल के सताने लगे
अश्क़ ही थे वफ़ा जो नीभाने लगे


कुछ रही ही नही मुझ को अप्नी खबर
ईस क़दर ज़ेह्न में वोह समाने लगे

चांदनी इक ही क्या है मेरे सनम
सब तेरे रुख के आगे फ़साने लगे

क्या पता है तुम्हें ज़ेह्मतें इश्क़ की
तुम को पाने में हम को ज़माने लगे

क्या ग़ज़ब का नशा था नज़र में तेरी
बीन पीये ही क़दम लद्खडाने लगे

सब लुटा कर भी हम मुत्म,इन॰* हो गये
ईश्क़ में हाथ क्या क्या खज़ाने लगे

इत्नी बेरेह्म तो थी न दूरी कभी
फ़ासीले भी सज़ा अब सुनाने लगे

ज़ब हुई शाम उन का खयाल आ गया
ळब मेरे येह ग़ज़ल गुन्गुनाने लगे

बेअसर बज़्म में थी ग़ज़ल ही मेरी
छोड कर बज़्म ही लोग जाने लगे

ज़ुल्म कर के सनम मुस्कुराने लगे
वोह बहारें गले हम लगाने लगे


तुम परिंदो की जब बात करने लगे   
पंख तमन्नाओ के मन हीं मन फ़ड़फ़ड़ाने लगे


मुत्म,इन॰=बेफ़ीक्र


--- मनु उर्फ़ मनिष आचार्य 

ज़ो वफ़ा का यक़ीं दीलाते हैं




ज़ो वफ़ा का यक़ीं दीलाते हैं
वादे अक्शर वो भूल जाते हैं

अश्क़ पल्कों तले छुपा कर हम
तेरे केह्ने पे मुस्कुराते हैं

तेरी यादों के साये भी अब तो
दिल के आंगन से लौट जाते हैं

ले उजाले तु भर ले जी भर कर
घर जला कर, येह दिल जलाते हैं

क्या करें कुछ नहीं दवा इस की
अश्क़ पी कर ही ग़म भुलाते हैं

कांटों की अब न किजिये पर्वाः
ज़ख्म तो फूल भी दे जाते हैं

मन्नतोँ पर यक़ीन हैं हम को
बेवफ़ा से येह दील लगाते हैं

बात तुम से हो गर बीछर्ने की
मौत को हम करीब पाते हैं

खुद्फ़रेबी* ही खुद्फ़रेबी हैं
अप्ने जज़्बों से चोट खाते हैं

क्या ज़माना हमे डरायेगा
हम हवादिस* पे घर बनाते हैं


खुद्फ़रेबी=औरों को तो बाद में मगर पेह्ले खुद को दगा देने की आद्मी की फ़ित्रत
हवादीस*=तूफ़ान