Monday, April 14, 2008

गम मेरे फीर ज़ब्त मेरा आज़्माने आ गये

गम मेरे फीर ज़ब्त मेरा आज़्माने आ गये
अश्क़ कुछ रिश्ते पुराने फीर नीभाने आ गये


बात हम्ने की जो रस्मन भी हसीनो से कभी
लोग देखीये तोह्मतें हम पर लगाने आ गये


आईने में अप्ना चेह्रा तुम ने देखा ही नही
ऊन्ग्लियां क्युं अप्नि औरों पर उठाने आ गये?


इस क़दर भी लोग है बेरेह्म सोचा भी न था
ज़ुल्म कर के ज़ख्म पर नीश्तर चलाने आ गये


ज़िन्दगि भर तो नही की क़द्र मेरे प्यार की
मर गया तो क़ब्र पर शम्मे जलाने आ गये


शाख़-ए-दिल से फूल बन कर दर्द की फूटी ग़ज़ल
फिर लो अह-ले-बज़्म तारीफ़ें लुटाने आ गये


जब कभी ख़ून-ए-जिगर से मैने लिक्खी है ग़ज़ल
हम्नीशी मेरे सभी बस मुश्कुराने आ गये


इल्म हम को जब हुआ गम अप्ना है उन्कि खुशी
मुश्कुरा कर हम तभि फीर ज़ख्म खाने आ गये


लाख चाहा हम्ने रुख यादोँ से तेरि मोड्ना
बीते कुछ बेरेह्म लम्हे दिल दुखाने आ गये


हम ने देखी ही नही आँगन मेन ऐसी भी फ़ीज़ा
तुम जो आये यू लगा मौसम सुहाने आ गये!


हां मगर अप्ने मुक़द्दर में येह मौसम ही न था
तुम गये , दिन ज़र्द पत्झड़ के पुराने आ गये


यूं रहे अप्ने मरासिम हाद्सो से उम्रभर
चाहा दिल , खून-ए-जिगर मेरा बहाने आ गये